भारतीय रुपये की कीमत क्यों गिरती-बढ़ती है? कारण जानें आसान भाषा में -
By finmaster
सोचिए, आपके पड़ोस में एक छोटी सी दुकान है जो सिर्फ एक ही चीज़ बेचती है - घर का बना आचार। पहले, दुकानदार एक बोतल के बदले आपसे 10 रुपये लेता था। लेकिन कुछ दिनों बाद वह कहने लगा, "भैया, अब 12 रुपये देना पड़ेगा।" फिर कुछ और दिन बाद, "15 रुपये।" आप हैरान होते हैं और पूछते हैं, "ये कीमत बढ़ क्यों रही है?" दुकानदार गिनाने लगता है: "देखिए, नमक महंगा हो गया, मिर्च का दाम बढ़ गया, तेल की कीमत आसमान पर है, और लोगों की माँग भी इतनी बढ़ गई है कि मैं सबको आचार नहीं दे पा रहा।"
ठीक यही कहानी है भारतीय रुपये (₹) और **अमेरिकी डॉलर ($)** की। जब आप कहते हैं कि "डॉलर महंगा हो गया है" या "रुपया गिर गया है", तो इसका सीधा मतलब है कि अब एक डॉलर खरीदने के लिए आपको पहले से ज्यादा रुपये चुकाने पड़ रहे हैं। जैसे हाल ही में $1 = ₹90+ हो गया। यह सिर्फ एक अंक नहीं है, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था का एक थर्मामीटर है।यह आंकड़ा रोज बदलता रहता है, ठीक शेयर बाजार की तरह। पर सवाल यह है कि आखिर कौन है वो 'दुकानदार' जो इसकी कीमत तय करता है? और कौन से वो 'नमक-मिर्च' हैं जिनकी वजह से यह कीमत घटती-बढ़ती रहती है? चलिए, आज इसी पूरे माजरे को बिना किसी झंझट के समझ लेते हैं।
सबसे पहला सिद्धांत: सप्लाई और डिमांड का खेल :
किसी भी चीज़ की कीमत का फंडा दुनिया में सबसे सरल है: जिस चीज़ की माँग ज्यादा हो और आपूर्ति कम, उसकी कीमत बढ़ जाती है। और जिस चीज़ की आपूर्ति ज्यादा हो और माँग कम, उसकी कीमत गिर जाती है। यही नियम डॉलर और रुपये पर भी लागू होता है। जब भारत को डॉलर की ज़रूरत ज्यादा पड़ती है और डॉलर की सप्लाई कम होती है, तो डॉलर की कीमत (यानी उसे खरीदने के लिए लगने वाले रुपये) बढ़ जाती है।
अब सवाल यह उठता है कि डॉलर की माँग कब बढ़ती है और आपूर्ति कब कम होती है? इसके पीछे कई बड़े कारण हैं।
कारण 1: आयात-निर्यात का असंतुलन (ट्रेड डेफिसिट) -
इसे समझने का यह सबसे आसान तरीका है। भारत बहुत सारी चीज़ें दूसरे देशों से आयात (Import) करता है - जैसे कच्चा तेल (पेट्रोल-डीज़ल), सोना, इलेक्ट्रॉनिक्स, मशीनें। इन सबको खरीदने के लिए हमें डॉलर में भुगतान करना पड़ता है।
वहीं दूसरी ओर, भारत दूसरे देशों को भी कुछ चीज़ें निर्यात (Export) करता है - जैसे आईटी सर्विसेज, दवाइयाँ, पेट्रोलियम उत्पाद, कपड़े। इनके बदले हमें डॉलर में भुगतान मिलता है।
अब, जब हमारा आयात, निर्यात से ज्यादा हो जाता है, तो हम जितने डॉलर कमा रहे हैं, उससे ज्यादा डॉलर हमें खर्च करने पड़ते हैं। यानी, डॉलर की माँग हमारी सप्लाई से ज्यादा हो जाती है। इस स्थिति को व्यापार घाटा (Trade Deficit) कहते हैं। जब व्यापार घाटा बढ़ता है, तो रुपया डॉलर के मुकाबले कमज़ोर (गिरता) होने लगता है। भारत को तेल के आयात पर बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है, इसलिए जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत बढ़ती है, तो भारत को ज्यादा डॉलर खर्च करने पड़ते हैं और रुपये पर दबाव बनता है।
कारण 2: विदेशी निवेशकों का रवैया (FII / FDI) -
यह कारण बेहद अहम और तात्कालिक असर डालने वाला है। बहुत सारे विदेशी संस्थागत निवेशक (FII) भारतीय शेयर बाजार और बॉन्ड (सरकारी कर्ज) में पैसा लगाते हैं। ये निवेशक बहुत बड़ी मात्रा में डॉलर लाकर उसे रुपये में बदलते हैं ताकि यहाँ निवेश कर सकें।
जब ये निवेशक भारत में निवेश करने में उत्साहित होते हैं, तो बड़ी मात्रा में डॉलर भारत में आता है। डॉलर की सप्लाई बढ़ने से रुपया मजबूत (कीमत बढ़ना) होता है।
लेकिन जब वैश्विक हालात ख़राब होते हैं, या भारत में उन्हें मुनाफा कम दिखता है, तो ये निवेशक अपना पैसा निकालकर वापस अमेरिका या कहीं और ले जाते हैं। ऐसा करने के लिए उन्हें अपने रुपये, डॉलर में बदलने पड़ते हैं। इससे डॉलर की माँग एकदम से बहुत ज्यादा बढ़ जाती है और रुपया तेजी से गिरने लगता है। इसे ही फंड्स का बहिर्गमन (FII Outflow) कहते हैं। यह रुपये की कीमत को बहुत जल्दी प्रभावित करता है।
कारण 3: अमेरिका और भारत के बीच ब्याज दर का फर्क -
यह थोड़ा टेक्निकल लग सकता है, पर समझ लीजिए तो सबसे ज़रूरी है। दुनिया भर के निवेशक हमेशा ऐसी जगह पैसा लगाना चाहते हैं जहाँ उन्हें ज्यादा से ज्यादा रिटर्न (ब्याज) मिले।
अगर अमेरिका की फेडरल रिजर्व (केंद्रीय बैंक) ब्याज दरें बढ़ा देती है, तो अमेरिका में जमा करने या निवेश करने पर ज्यादा रिटर्न मिलने लगता है। ऐसे में, निवेशक भारत जैसे देशों से पैसा निकालकर अमेरिका की ओर भागते हैं, क्योंकि वहाँ उन्हें ज्यादा फायदा दिख रहा होता है। इससे डॉलर की माँग बढ़ती है और रुपया गिरता है।
दूसरी तरफ, अगर भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ब्याज दरें बढ़ाता है, तो भारत में निवेश करने का फायदा बढ़ जाता है। इससे विदेशी निवेशक भारत की ओर आकर्षित हो सकते हैं, जिससे रुपया मजबूत हो सकता है। हालाँकि, ब्याज दरें बढ़ाने से देश के अंदर लोन महंगे हो जाते हैं, इसलिए RBI को बहुत संतुलन बनाकर चलना पड़ता है।
कारण 4: देश की आर्थिक सेहत और राजनीतिक हालात -
कोई भी निवेशक अपना पैसा ऐसे देश में लगाना चाहता है जो आर्थिक रूप से मजबूत और राजनीतिक रूप से स्थिर हो।
- महंगाई (Inflation): अगर भारत में महंगाई अमेरिका के मुकाबले ज्यादा है, तो इसका मतलब है कि रुपये की क्रय शक्ति कम हो रही है। निवेशकों को डर लगता है कि उनके निवेश की वैल्यू घट जाएगी, इसलिए वे पैसा नहीं लगाते। यह रुपये के लिए नकारात्मक होता है।
- आर्थिक विकास दर (GDP Growth): अगर भारत की विकास दर तेज है, तो यह विदेशी निवेश को आकर्षित करती है और रुपये को मजबूती देती है।
- राजनीतिक स्थिरता और सरकारी नीतियाँ: किसी बड़े चुनाव के नतीजे, सरकार का बहुमत, या फिर अचानक कोई नया कानून (जैसे टैक्स में बदलाव) - ये सब निवेशकों के विश्वास को प्रभावित करते हैं। विश्वास बढ़ेगा तो रुपया मजबूत होगा, विश्वास डगमगाएगा तो रुपया कमजोर।
कारण 5: वैश्विक अनिश्चितता और 'सेफ हैवन' की ओर भाग -
जब दुनिया में तनाव बढ़ता है - जैसे युद्ध (रूस-यूक्रेन), कोई बड़ी आर्थिक मंदी की आशंका, या कोई वैश्विक महामारी - तब निवेशक जोखिम से बचना चाहते हैं। ऐसे समय में वे अपना पैसा सुरक्षित पनाहगार (Safe Haven) माने जाने वाली संपत्तियों में लगाते हैं। अमेरिकी डॉलर और अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड्स दुनिया के सबसे बड़े सेफ हैवन माने जाते हैं।
इसलिए, दुनिया में जब भी संकट की स्थिति बनती है, निवेशक भारत सहित अन्य बाजारों से पैसा निकालकर अमेरिकी डॉलर में पनाह लेते हैं। इस वजह से डॉलर की वैश्विक माँग एकदम से आसमान छू जाती है और उसकी कीमत (हर दूसरी मुद्रा के मुकाबले, जिसमें रुपया भी शामिल है) बढ़ जाती है। यही कारण है कि अक्सर वैश्विक उथल-पुथल के दौर में भी डॉलर मजबूत होता दिखता है।
कारण 6: RBI की भूमिका - बाजार में सीधे हस्तक्षेप
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) केवल दर्शक नहीं बैठा रहता। वह रुपये की विनिमय दर को बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव से बचाने की कोशिश करता है। अगर रुपया बहुत तेजी से गिर रहा होता है, तो RBI अपने विदेशी मुद्रा भंडार (Foreign Exchange Reserves) से डॉलर बाजार में बेचता है। इससे डॉलर की सप्लाई बढ़ जाती है और उसकी कीमत (रुपये के मुकाबले) को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।
इसी तरह, अगर रुपया बहुत तेजी से मजबूत हो रहा होता है (जो हमारे निर्यातकों के लिए अच्छा नहीं है, क्योंकि उनकी चीजें विदेशों में महंगी हो जाएँगी), तो RBI डॉलर खरीदकर रुपये की सप्लाई बढ़ा सकता है, ताकि उसे थोड़ा नियंत्रित किया जा सके।
अभी क्या हाल है? $1 = ₹90+ क्यों हो गया?
अभी के समय में रुपये पर दबाव इनमें से कई कारणों की 'मिली-जुली थाली' है:
1. तेल की ऊँची कीमतें: अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें ऊपर हैं, जिससे भारत का आयात बिल बढ़ा है।
2. अमेरिका में ऊँची ब्याज दरें: अमेरिकी फेड ने मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए ब्याज दरें बढ़ाई हैं, जिससे डॉलर में निवेश आकर्षक हुआ है और पैसा अमेरिका की ओर जा रहा है।
3. वैश्विक अनिश्चितता: दुनिया के कई हिस्सों में भू-राजनीतिक तनाव बने हुए हैं, जिससे निवेशक सुरक्षित डॉलर की ओर रुख कर रहे हैं।
4. विदेशी निवेशकों का निकास: इन सब कारणों से FIIs भारतीय बाजारों से पैसा निकाल रहे हैं, जो रुपये पर सीधा दबाव डाल रहा है।
निष्कर्ष:
यह एक लगातार चलने वाला संतुलन का खेल है
रुपये का उतार-चढ़ाव कोई 'अचानक हुई दुर्घटना' नहीं है। यह वैश्विक बाजार में लगातार चलने वाली ताकतों का नतीजा है - जहाँ हमारी अर्थव्यवस्था की सेहत, हमारी नीतियाँ, और बाकी दुनिया में हो रही घटनाएँ, सब मिलकर रुपये की कीमत तय करती हैं। एक आम आदमी के लिए, रुपये का कमजोर होना मतलब आयातित चीजों के महंगे होने से है (पेट्रोल से लेकर मोबाइल तक)। लेकिन यह हमारे निर्यातकों को भी फायदा देता है, क्योंकि उनकी कमाई (डॉलर में) के बदले उन्हें ज्यादा रुपये मिलते हैं।तो अगली बार जब आप खबरों में "रुपया लुढ़का" या "डॉलर पहुँचा नए रिकॉर्ड स्तर पर" सुनें, तो समझ जाइएगा कि यह सिर्फ एक अंक नहीं, बल्कि दुनिया भर की आर्थिक हलचलों का एक जीता-जागता प्रतिबिंब है।
अस्वीकरण (Disclaimer) :
यह लेख केवल सामान्य जानकारी प्रदान करने के उद्देश्य से लिखा गया है। यहाँ दी गई जानकारी किसी भी प्रकार की वित्तीय, निवेश या व्यापार सलाह नहीं है। विदेशी मुद्रा बाजार जटिल और अस्थिर होते हैं। मुद्रा दरों से संबंधित कोई भी निर्णय लेने से पहले स्वतंत्र रूप से शोध करें और किसी योग्य वित्तीय सलाहकार से सलाह अवश्य लें। लेखक या प्रकाशक किसी भी निर्णय से होने वाले परिणामों के लिए जिम्मेदार नहीं है।

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